15 करोड़ खानाबदोश व अर्ध खानाबदोश जनजातियों के बारे में आयोग की रिपोर्ट खटाई में
छठी सदी के संस्कृत के महाकवि दंडी ने अपनी रचना दशकुमार चरित्र में एक जाति का उल्लेख किया है। यह जाति और कोई नहीं आज के युग में भी तंबू-कनात लिए हुए एक जगह से दूसरी जगह अपना आशियाना बदलतीं बनजारा जातियां हैं। भारत सरकार द्वारा गठित खानाबदोश एवं अर्ध खानाबदोश जनजाति राष्ट्रीय आयोग ने जुलाई २००८ के पहले सप्ताह में सौंपी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि इस समय देश में करीब 12 करोड़ ऐसी आबादी है। कुछ अन्य स्रोतों से यह संख्या 15 करोड़ बतायी गयी है। यानि पूरा उत्तर प्रदेश जितनी बड़ी आबादी या यूरोप के कई देशों के बराबर की आबादी भारत में बेघरबार इधर-उधर भटक रही है। इनकी न तो कोई नागरिकता होती है और न ही कोई पहचान। आयोग के अनुसार देश का नागरिक होते हुए भी व्यवहार से बंजारा जातियां न किसी देश का नागरिक है और न ही उसे नागरिक जैसे अधिकार प्राप्त हैं।
बालकृष्ण रेणके की अध्यक्षता में गठित आयोग ने बंजारों की स्थिति में सुधार के लिए 38 अंतरिम सिफारिशें की और उन्हें आवश्यक नीति एवं योजना निर्माण के लिए सामाजिक न्याय मंत्रालय को सौंपा। लेकिन न तो संसद को और न ही इन बनजारों को ही सरकार की ओर से यह बताया गया है कि उनके हालात में बेहतरी के लिए इन सिफारिशों की रोशनी में क्या कुछ किया जा रहा है। आयोग ने इस बात पर भी चिंता जाहिर की है कि विभिन्न राज्यों में इन जातियों को दलित-आदिवासी या पिछड़ा- किसी वर्ग में शामिल नहीं किया गया है। आयोग ने इन जातियों के बच्चों के लिए आवासीय विद्यालय खोलने तथा उन्हें आवश्यक तकनीकी प्रिशक्षण देने पर बल दिया है और इनके लिए 10 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव किया है।
बंजारा मुख्य रूप से देश के दक्षिण और पश्चिम में बसे हैं। वैसे ऐसी घूमन्तु जातियां देश भर में हैं। उत्तर प्रदेश में ये बावरिया और बिहार में करोर, नट, बक्खो आदि कहलाते हैं। दक्षिण के बनजारे अपना उत्स उत्तर भारत की ब्राह्मण और राजपूत जातियों से मानते हैं, तो राजस्थान मूल की गड़िया लोहार नामक बनजारा जाति चित्तौड़ की राजपूत जाति से। इतिहास में इस जाति का पहला उल्लेख 1612 की तारीखे-खाने-जहान लोदी में मिलता है। ग्रियर्सन के अनुसार, बंजारा नाम संभवत: संस्कृत के वाणिज्यकार से आया है। बंजारा जाति को और भी कई नामों से जाना जाता है। इनमें बनजारी, ब्रिजपरी, लभानी, लाबांकी, लबाना, लभाणी, लंबानी, बोइपारी, सुगाली आदि शामिल है।
अंग्रेंजों ने 1871 में अपराधी जनजाति कानून बनाकर सभी बंजारा जातियों को चोर-लूटेरे के रूप में चित्रित किया। यह काला कानून 1952 में रद्द हो गया लेकिन उसकी जगह `आदतन अपराधी कानून 1952´ स्वतंत्र भारत की संसद ने बना दिया, जो आज भी लागू है। इसके अलावा भिक्षा प्रथा निषेध कानून के तहत भी इन जातियों को प्रताड़ित करने का सिलसिला बदस्तूर जारी है।
बिहार विधान परिषद के पूर्व सभापति, वर्तमान में राज्यसभा सांसद और उर्दू के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित डॉ। जाबिर हुसैन द्वारा संपादित अर्धवार्षिक पत्रिका `दोआबा´ का दिसंबर 2008 का अंक खानाबदोशों पर ही केंद्रित है।
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 1930 में लिखा था, ` अपराधी जनजाति कानून के विनाशकारी प्रावधान को लेकर मैं चिंतित हूं। यह नागरिक स्वतंत्रता का निषेध करता है। इसकी कार्यप्रणाली पर व्यापक रूप से विचार किया जाना चाहिए और को्शिश की जानी चाहिए कि उसे संविधान से हटाया जाए। किसी भी जनजाति को अपराधी करार नहीं दिया जा सकता।´ लेकिन लगता है नेहरू के वारिश ही उनकी भावना नहीं समझ पा रहे है या समझ कर भी अनजान बनने का नाटक कर रहे हैं।
दोआबा में खानाबदोशों पर रिपोर्ट को अगली पोस्टों में जारी रखने की कोशिश करूंगा।
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Jai sevalal,Gormati.......I think,you want to write something.