निर्वाचन आयोग ने महाराष्ट्र, अरुणाचल प्रदेश और हरियाणा में विधानसभा चुनावों की घोषणा कर दी है। इन राज्यों में 13 अक्टूबर को मतदान निश्चित किया गया है। इनमें महाराष्ट्र के चुनाव खासा दिलचस्प हैं। चुनावों की तैयारियों के सिलसिले में महाराष्ट्र के सभी प्रमुख राजनीतिक दल जाति आधारित सम्मेलनों के आयोजन में व्यस्त दिखने लगे हैं। अचानक ही धनगर रैली और कोली समाज सम्मेलन की ही तरह बहुगुजर, माली, कुम्हार, आगरी, महार लिंगायत, मातंग, सुतार-लुहार, दर्जी, नाई, बौद्ध, कुणवी, ब्राह्मण, धोबी आदि समाजों के भी सम्मेलन होने लगे हैं। सम्मेलनों में इन जातियों की मांगें मानी जा रही हैं, उनसे कई वादे किए जा रहे हैं, उन्हें रियायतें दी जा रही है। साफ है कि राजनीतिक दल यह सब कुछ विधानसभा चुनावों में बढ़त पाने के उद्देश्य से कर रहे हैं।
इन सम्मेलनों से इतर महाराष्ट्र में इन दिनों एक और बात देखी जा रही है। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता गांवों में ऐसे लोगों को अपने साथ ले रहे हैं, जो प्रमुख जातियों के वोट खींचने में समर्थ हैं। दलों के कार्यालयों में हर सीट के जातिगत समीकरण पर विचार-विमर्श हो रहा है। इस बार हलचल इसलिए ज्यादा है, क्योंकि परिसीमन ने हर सीट का भूगोल और मतदाताओं का प्रोफाइल बदल दिया है।
ढाई दशक पहले तक महाराष्ट्र में जाति का गणित इतना प्रभावशाली नहीं था। सत्ता के गलियारों में एकमात्र मराठा जाति हावी थी। बाकी जातियां उसी पर आश्रित थीं। इसलिए लंबे समय तक यह मान्यता कायम रही कि महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री बनने के लिए उसका मराठा होना जरूरी है। यदि किसी अन्य जाति का व्यक्ति मुख्यमंत्री बन गया तो उसे टिकने नहीं दिया जाता। बंजारा जाति के वसंतराव नाइक का 11 साल तक मुख्यमंत्री बने रहना इस बात का द्योतक है कि शुरू में मराठा लॉबी पर कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी का प्रभाव था। हालांकि 1980 में इंदिरा गांधी ने ही ए. आर. अंतुले को मुख्यमंत्री बनाया था, पर दो साल में ही उन्हें हटा दिया गया। 2004 में दलित मतों के लिए चुनाव के 13 महीने पहले विलासराव देशमुख को हटाकर दलित नेता सुशील कुमार शिंदे को मुख्यमंत्री बनाया गया। लेकिन चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस ने शिंदे को नहीं, मराठा नेता विलासराव देशमुख को मुख्यमंत्री बनाया।
महाराष्ट्र की कुल आबादी में मराठे 27 प्रतिशत हैं। यह प्रतिशत अधिक नहीं है, पर राज्य के उद्योग-धंधों पर मराठा जाति की पकड़ मजबूत है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर तो उन्हीं का वर्चस्व है। तालुका और जिले की राजनीति को प्रभावित करने वाले राज्य के चीनी कारखाने, सूत मिलें, दुग्ध सोसायटियां, क्रेडिट सोसायटियां, सहकारिता बैंक, खरीद-बिक्री संघ सभी पर मराठों को बढ़त हासिल है। इसी का नतीजा है कि हर जिले या तालुका में किसी न किसी मराठा परिवार का साम्राज्य जैसा स्थापित हो गया हैं। कोंकण जैसे कुछ क्षेत्र इस ट्रेंड के अपवाद हैं, पर राजनीति में उनकी हैसियत मामूली है।
हालांकि राजनीति और बिजनेस दोनों जगह मराठे छाए हुए हैं, पर शरद पवार के कांग्रेस से अलग हो जाने के बाद मराठा लॉबी बंट गई है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) पर मराठों का वर्चस्व है। मंत्रिमंडल में शामिल उसके 24 मंत्रियों में से 17 मराठा ही हैं। पर मराठा आरक्षण की मांग ने इस लॉबी को करारा झटका दिया है। यह बात फैल गई है कि सत्ता पर असल में कुणवी मराठों का कब्जा है और असली मराठों का बड़ा तबका सत्ता से महरूम है। हाल में हुए लोकसभा चुनावों में एनसीपी की पराजय का एक कारण मराठा आरक्षण की मांग रहा है। इसी मांग ने ओबीसी और दलित वर्ग को एनसीपी से अलग कर दिया।
उत्तर भारतीय राज्यों के मुकाबले महाराष्ट्र को जात-पांत के मामले में प्रगतिशील माना जाता है। मूल रूप में महाराष्ट्र प्रगतिशील है भी। लेकिन जब बात सत्ता पर अधिकार की आती है, तो वहां जाति को ही अहमियत दी जाती है। वैसे तो कांग्रेस ने दलितों और मुसलमानों को सदा अपने साथ जोड़े रखा, सत्ता में भी जगह दी, लेकिन उसने भी शीर्ष पद उनके हाथ लगने नहीं दिए।
स्व. यशवंतराव चव्हाण, वसंत दादा पाटिल और अब शरद पवार व्यक्तिगत तौर पर जातिवादी नहीं कहे जा सकते, पर वे पश्चिम महाराष्ट्र के जिस समृद्ध इलाके से ताल्लुक रखते हैं, वहां मराठा जाति की राजनीति ही हावी है। खुद शरद पवार ने मराठा लॉबी के शिकंजे से मुक्त होने और सही मायने में जन नेता बनने के लिए कई फैसले किए। इनमें से प्रमुख था मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बदलकर बाबा साहब आंबेडकर के नाम पर रखना। पर पवार को इस फैसले की कीमत 1995 में हुए विधानसभा चुनावों में चुकानी पड़ी थी। मराठवाड़ा में कांग्रेस की पराजय हुई, क्योंकि इस फैसले से दलितों के बाहर का समाज नाराज हो गया था।
शिवसेना के बाल ठाकरे ने भी शुरू में जातिगत राजनीति से परहेज किया, लेकिन सत्ता की राजनीति में लंबे समय तक टिके रहने के लालच में अब शिवसेना भी जाति का गणित बिठाने लगी है। 1999 में चुनाव से पहले ठाकरे भी नारायण राणे को मुख्यमंत्री बनाने पर मजबूर हुए, जोकि मराठा हैं। शिवसेना की पार्टनर- बीजेपी भी जाति के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करती रही है।
गत दो लोकसभा और विधानसभा चुनावों से जाति समीकरणों के आधार पर ही उम्मीदवार तय किए जा रहे हैं। मतदान का पैटर्न भी जातीय गणित के असर से अछूता नहीं रह पाया है। ग्रामीण इलाकों में तो जातियों का वर्चस्व है ही, महानगरों में भी उम्मीदवार की जाति, क्षेत्र और भाषा देखी जाती है। उम्मीदवार की शिक्षा, सामाजिक हैसियत और आचरण के बारे में सोचना इन दिनों आउट डेटेड हो गया है।
महाराष्ट्र में कभी इस विचार को अहमियत मिली थी कि अगर जाति के आधार पर रियायतें दी गईं, तो इससे समाज में जातिगत भेदभाव को बढ़ावा मिलेगा। पर दुर्भाग्य से अब यह विचार बिल्कुल अप्रासंगिक हो गया है। चुनाव के मौके पर हर जाति-समाज को खुश करने के लिए रियायतों की घोषणा करने का नया रिवाज चल निकला है। अफसोस यह है कि राजनीति में एकजुट हुआ बहुजन समाज मराठों की जगह नहीं ले पा रहा है। गोपीनाथ मुंडे जैसे कुछ गैर-मराठा प्रभावशाली नेता हुए हैं, पर धीरे-धीरे वे भी अपनी जाति के ही नेता बनते जा रहे हैं।
regards,
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Jai sevalal,Gormati.......I think,you want to write something.